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Monday, 22 June 2015

सरोज स्मृति(Saroj Smirti)-सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'(Suryakant Tripathi 'Nirala')

देखा विवाह आमूल नवल,
तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल |
देखती मुझे तू हँसी मंद,
होठों में बिजली फँसी स्पंद
उर में भर झूली छबि सुंदर
प्रिय को अशब्द शृंगार मुखर
तू खुली एक-उच्छुवास-संग,
विस्वास स्तबध बँध अंग-अंग
नत नयनों से आलोक उतर
काँपा अधरों पर थर-थर-थर;
देखा मैंने, वह मूर्ति-धीति
मेरे वसंत की प्रथम गीति-

श्रृंगार, रहा जो निराकार,

रस कविता में उच्छवसित-धार
गाया स्वर्गिया-प्रिया-संग-
भरता प्राणों में राग-रंग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदल कर बना मही।
हो गया व्याह,आत्मीय स्वजन,
कोई थे नहीं, न आमंत्रण
था भेजा गया, विवाह-राग
भर रहा न घर निशि-दिवस जाग;
प्रिय मौन एक संगीत मरा
नव जीवन के स्वर पर उतरा।

मां की कुल शिक्षा मैंने दी.
पुष्प-सेज तेरी स्वय रची,
सोचा मन में, "वह शकुंतला,
पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।"
कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद,
बैठी नानी की स्नेह-गोद |
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यों अपार;
वे ही सुख-दुख में रहे नयस्त,
तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त;
वह लता वहीँ की, जहाँ कली
तू खिली, स्नेह सै हिली, पली,
अंत भी उसी गोद में शरण
ली, मूँदे दृग वर महामरन!



मुझ भाग्यहीन की तू संबल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्‍ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मो का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!