Monday, 22 June 2015

बनारस(Banras)-केदारनाथ सिंह(Kedarnath sinh)

इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैने देखा है
लहरतारा या मटुवाडीह की तरफ से
उठता है धुल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है

जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है यह फेंकने लगता है पंचखियाँ
आदमी दशाश्वमेध पर जाता है
और पाता है धाट का आखिरी पत्थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढियों पर बैठे बन्दरो की आँखों में
एक अजीब भी नमी है
और एक अजीब भी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटोरो का निचाट ख़ालीपन

तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर

इसी तरह रोज-रोज़ एक अनंत शव
ले जाते है कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा को तरफ

इस शहर में धुल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते है लोग
धीरे-धीरे बजते हैं के घंटे
शाम धीरे-धीरे होती है

यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर की
इसतरह कि कुछ भी गिरता नही
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज जहाँ भी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकडों बरस से

कभी सई-सांझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओं इस शहर में
कभी आरती के आलोक में

इसे अचानक देखो
अदभुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है

आधा शव में
आधा नीद में है
आधा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं है


जो है वह खड़ा है
विना किसी स्तंभ के
जो नहीं है उसे थामे है
राख और रोशनी के ऊँचे-ऊँचे स्तंभ
आग के स्तंभ
और पानी के स्तंभ
धुएँ के
खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्तंभ

किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर खडा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से
बिलकुल बेखबर!


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