जब हम सत्य को पुकारते है
तो वह हमसे परे हटता जाता है
जैसे गुहारत्ते हुए युधिष्ठिर के सामने से
भागे थे विदुर और भी घने जंगलों में
सत्य शायद जानना चाहता है
कि उसके पीछे हम कितनी दूर तक भटक सकते है
कभी दिखता है सत्य
और कभी ओझल हो जाता है
और हम कहते रह जाते है कि रूको यह हम है
जैसे धर्मराज के वार-वार दुहाई देने पर
कि ठहरिए स्वामी विदुर
यह मैं हूँ आपका सेवक कुन्तिनदन युधिष्ठिर
वे नहीं ठिठकते
यदि हम किसी तरह युधिष्ठिर जैसा संकल्प पा जाते है
तो एक दिन पता नहीं क्या सोचकर रुक ही जाता है सत्य
लेकिन पलटकर सिफ्रं खड़ा ही रहता है वह दृढ़निश्चयी
अपनी कहीं और देखती दृष्टि से हमारी आँखों में देखता हुआ
अंतिम बार देखता-सा लगता है वह हमें
और उसमें से उभी का हलका सा प्रकाश जैसा आकार
समा जाता है हममें
जैसे शमी वृक्ष के तने से टिककर
न पहचानने में पहचानते हुए विदुर ने धर्मराज को
निर्निमैष देखा था अंतिम बार
और उनमें से उनका आलोक धीरे-धीर आगे बढ़कर
मिल गया था युधिष्ठिर में
सिर झुकाए निराश लौटते है हम
कि सत्य अंत तक हमसे कुछ नहीं बोला
हाँ हमने उसके आकार से निकलता वह प्रकाश-पुंज देखा था
हम तक आता हुआ
वह हममें विलीन हुआ या हमसे होता हुआ आगे बढ़ गया
हम कह नहीं सकते
न तो हममें कोई स्फरुन हुआ और न ही कोई ज्वर
किंतु शेष सारे जीवन हम सोचते रह जाते है
जैसे जानें कि सत्य का वह प्रतिबिंब हममें समाया या नहीं
हमारी आस्था में जो कमी-कमी दमक उठता है
क्या वह उसी की छुअन है
जैसे
विदुर कहना चाहते तो वही बता सकते थे
सांचा होगा माथे के साथ अपना मुकुट नीचा किए
युधिष्ठिर ने
खंडवाप्रस्था से इंद्रप्रस्थ लौटते हुए।
तो वह हमसे परे हटता जाता है
जैसे गुहारत्ते हुए युधिष्ठिर के सामने से
भागे थे विदुर और भी घने जंगलों में
सत्य शायद जानना चाहता है
कि उसके पीछे हम कितनी दूर तक भटक सकते है
कभी दिखता है सत्य
और कभी ओझल हो जाता है
और हम कहते रह जाते है कि रूको यह हम है
जैसे धर्मराज के वार-वार दुहाई देने पर
कि ठहरिए स्वामी विदुर
यह मैं हूँ आपका सेवक कुन्तिनदन युधिष्ठिर
वे नहीं ठिठकते
यदि हम किसी तरह युधिष्ठिर जैसा संकल्प पा जाते है
तो एक दिन पता नहीं क्या सोचकर रुक ही जाता है सत्य
लेकिन पलटकर सिफ्रं खड़ा ही रहता है वह दृढ़निश्चयी
अपनी कहीं और देखती दृष्टि से हमारी आँखों में देखता हुआ
अंतिम बार देखता-सा लगता है वह हमें
और उसमें से उभी का हलका सा प्रकाश जैसा आकार
समा जाता है हममें
जैसे शमी वृक्ष के तने से टिककर
न पहचानने में पहचानते हुए विदुर ने धर्मराज को
निर्निमैष देखा था अंतिम बार
और उनमें से उनका आलोक धीरे-धीर आगे बढ़कर
मिल गया था युधिष्ठिर में
सिर झुकाए निराश लौटते है हम
कि सत्य अंत तक हमसे कुछ नहीं बोला
हाँ हमने उसके आकार से निकलता वह प्रकाश-पुंज देखा था
हम तक आता हुआ
वह हममें विलीन हुआ या हमसे होता हुआ आगे बढ़ गया
हम कह नहीं सकते
न तो हममें कोई स्फरुन हुआ और न ही कोई ज्वर
किंतु शेष सारे जीवन हम सोचते रह जाते है
जैसे जानें कि सत्य का वह प्रतिबिंब हममें समाया या नहीं
हमारी आस्था में जो कमी-कमी दमक उठता है
क्या वह उसी की छुअन है
जैसे
विदुर कहना चाहते तो वही बता सकते थे
सांचा होगा माथे के साथ अपना मुकुट नीचा किए
युधिष्ठिर ने
खंडवाप्रस्था से इंद्रप्रस्थ लौटते हुए।
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